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http://www.youtube.com/watch?v=Umvp8jXA3Xw
१९वें राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन मीडिया के लिये एक मसाला और गप्पबाजों के लिये एक रोचक व्यायाम बनकर रह गया है। पढें और सोचें
आज कल जिसे देखो दिल्ली में ३ अक्तूबर २०१० से अरंभ होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के विषय में ही सोच रहा है, उन्हीं के चिंता में खोया हुआ है – जैसे बाकी सभी समस्यायें, सभी चिंताएं, सभी विघ्न-बाधाएं मिट गयीं हैं, गौण हो गयी हैं। कुछ और सोचने को है ही नहीं। केवल यही चिंता हमें खाए जा रही है कि हम ये राष्ट्रमंडल खेल सफलतापूर्वक सम्पन्न करवा पाएंगे अथवा नहीं। ये हमारी राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न बन गया है, अथवा बना दिया गया है। हमारी उन्नति, हमारी सम्पन्ता, हमारा विकास सब कुछ केवल इसी एक बिंदु पर आ कर टिक गये हैं – ये खेल सफलतापूर्वक संपन्न होंगे या नहीं। इसी एक प्रश्न ने सब को जकड़ रखा है, सबको परेशान कर रखा है; कहीं कोई दुर्घटना न घट जाए, कुछ अनिष्ट न हो जाए। इलेक्ट्रानिक एवं प्रिंट – दोनों संचार माध्यमों पर बस यही एक गर्म खबर परोसी जा रही है – खेल मंत्री एम। एस। गिल ने क्या कहा? दिल्ली की मुख्य मंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने खेल-गाँव के दौरे के बाद क्या निर्देश दिये? कौन से स्टेडियम में क्या हो रहा है? हमारी भूख-प्यास सब इन सवालों के आगे कुछ अर्थ नहीं रखतीं।http://www.youtube.com/watch?v=Umvp8jXA3Xw
१९वें राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन मीडिया के लिये एक मसाला और गप्पबाजों के लिये एक रोचक व्यायाम बनकर रह गया है। पढें और सोचें
लगभग सात वर्ष पूर्व यह निर्णय लिया गया था कि १९वें राष्ट्रमंडल खेल भारत की राजधानी दिल्ली में आयोजित होंगे। तब से लगभग साढे़ छः वर्ष तक हम सब सोए रहे। संभवतः हम में से अधिकतर लोगों को तो यह बात मालूम ही नहीं थि, या फिर याद ही नहीं रही। इस व्रष जून-जुलाई में कुछ सिरफिरे खोजी पत्रकारों ने अपनी दूकान चलाने के लिए न जाने कहां से यह समाचार खोज निकाला कि १९वें राष्ट्रमंडल खेलों से संबंधित आयोजन-समिति अपना काम ठीक ढंग से नहीं कर रही है। फिर क्या था! पत्रकारिता के क्षेत्र में जैसे भूचाल सा आ गया। समाचारों से संबंधित सभी टी। वी। चैनलों पर चर्चाएं-गोष्ठियां आयोजित होने लगीं –यह देखने के लिए कि अभी तक कितना काम हो चुका है और कितना भाकी है। आयोजन-समिति के अध्यक्ष श्री सुरेश कलमाडी़ जब सवालों के चक्रव्यूह में फँसे तो बिफर कर कहने लगे कि मीडिया का तो काम ही है उल्टी सीधी खबरें फैला कर पैसे बनाना। लेकिन कहते हैं, “बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी”। सो ये बात पहुंची हमारे संसद सदस्यों तक। वे ठहरे जन-प्रतिनिधि। चुप कैसे बैठ सकते थे! संसद में खेल मंत्री को घेरने के अनेक प्रयत्न किए गये लेकिन हमारे हँसोढ़ खेल मंत्री ने कहा कि ये हमारे काम करने का अनूठा ढंग है, हमारी कार्यशैलि है। भारतीय शादी में जिस प्रकार आकिरी समय तक तैयारियां चलती रहती हैं लेकिन अंत में दूल्हा-दुलहन मिल ही जाते हैं, वैसा ही कुछ इन खेलों में भी होने वाला है। चिंता की कोई आवश्यकता नहीं है।
लेकिन खोजी पत्रकारिता का क्या कीजिये। कुछ पत्रकारों के दिमाग में खोज की खुजली लग गयी थी, सो वे खोजते रहे। “जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।“
खोज की खुजली जब भ्रष्टाचार के दानों को खुजलाया तो वे फूट पडे़। उन दानों में से सत्य की जिस सरिता का उद्गम हुआ, उसके बहाव में आयोजन-समिति के अनेकों कर्णधार बहने लगे। कलमाडी़ ने अपने पाँव जमाने की बहुत कोशिश की। वे बच तो गये किंतु निश्क्रिय से हो कर रह गये।
मौसम ने भी भ्रषटाचार की इस सरिता में कुछ योगदान करने की सोची और झमाझम पानी बरसने लगा। इतना पानी बरसा कि यमुना में उफान आ गया। आयोजन-समिति को जैसे इस विभीषिका में तिनके का सहारा मिल गया। समिति कहने लगी, इसी बरसात की वजह से हमारी तैयारियों में कुछ देरी हो रही है वरना हमारी तैयारियों में कोई नुक्स नहीं। देश के वर्तमान कर्णधार श्री मनमोहन सिंघ ने आनन-फानन में मंत्रियों का एक समूह बना दिया जिसका काम खेल-तैयारियों की निगरानी करना था। लेकिन मंत्री-समूह तो भारतीय शादी में बाराती बनने के विचार से ही रोमांचित होता रहा और वह समय बिल्कुल निकट आ पहुँचा जब विदेशी बारातियों [खिलाडि़यों] को खेल-गाँव पहुंचना था। विदेशी खिलाडी़ पहले से ही सावधान थे। उन्होंने खुद आने से पहले अपने प्रतिनिधियों को इस बात की जाँच करने के लिए भेजा कि खेल-घाँव कैसा है। पता लगा कि जहां किलाडि़यों को ठहरना है वहां फिलहाल कुत्ते बिल्लियां आराम फरमा रहे हैं। क्यों न हो! हम भारतीय इतने पशु-प्रेमी जो हैं। लेकिन विदेशी खिलाडी़ इस अनावश्यक पशु-प्रेम से बिदक गये। उन्होंने सोचा हमारे हिस्से का सारा प्रेम यदि जानवरों को दे दिया गया तो हमारा क्या होगा? खूब बखेडा़ मचा। इसी बीच एक आध और दुर्घटनाएं घट गयीं। हम तो ऐसी दुर्घटनाओं के अभ्यस्त हैं मगर शायद विदेशियों को इस की आदत नहीं। बेचारे विदेशी खिलाडी़! घबरा गये ज़रा सी बात पर। हमारे गृहमंत्री ने बहुत समझाया कि ऐसी गोलियां तो यहां शादियों की शोभा बढा़ती हैं। सब कुछ ठीक-ठाक है। चिंता की कोई बात नहीं है। विदेशमंत्री ने भी यकीन दिलाया कि सुरक्षा से संबंधित यहां कोई समस्या नहीं है। यहां की पुलिस का चोरों से बहुत पुराना रिश्ता है। इस लिए वे दुर्घटना से बहुत पहले ही जान लेते हैं कि कौन कहां कब वारदात करने जा रहा है। उस वारदात को रोकना या न रोकना हमारे ही हाथ में है।
लेकिन खोजी पत्रकारों की खुजली से भ्रषटाचार के दाने फूटते रहे और भ्रष्टाचार की सरिता बहती रही। थोडी़-बहुत चीख-पुकार के उपरांत विदेशी खिलाडी़ भी जान गये कि इन तिलों में तेल नहीं है। उन्होंने भी परिस्थितियों से समझौता कर लिया और दिल्ली के खेल-घाँव में इकट्ठे होने लगे।
किसी तरह ये खेल हो ही जाआएंगे। और फिर हम सब कुछ भूल कर रोज़मर्रा के कामों में लग जाएंगे – जैसे कुछ हुआ ही न हो। खोजी पत्रकारों की खुजली भी किसी न किसी मरहम से रुक ही जाएगी। लेकिन हमारे देश की जो जगहँसाई हो रही है, क्या हम उसका प्रतिकार कभी कर पाएंगे?
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